Sunday, July 27, 2014

मेरी किस्मत

जाने कितनी बार खरीदी और बेची गयी हूँ मैं
इस समाज ने कितनी बार बोली लगाई मेरी
मुझे जिन्दगी जीने का हक नहीं था क्या
मुझे आज़ाद रहने का शौक नहीं था क्या
मेरे माँ बाप क्यों लाये थे मुझे दुनिया में
क्यों फैक दिया मुझे उन्होंने ओस नर्क में
जहाँ रोज़ मेरी जिस्म और रूह को नोच जाता है
मेरी हर चीख को दबाया और ज़ख्म को कुरेदा जाता है
मुझे रखा  जाता है एक सामान की तरह
हाल कर दिया जाता है शमशान की तरह
मैं भी शायद आदि हो जाती हूँ सब सहने की
कोशिश करू भी तो कैसे इन सब से निकलने की
हर तरफ भेडिये मुझे दबोचने को तैयार बैठे है
किस पे करूँ भरोसा सब मेरे तलबगार बैठे हैं
जीना मेरा इतना ही है या मेरी ये नादानी है
मेरे नसीब में दो जून रोटी और सिर्फ पानी है
कर के एक की हवस पूरी अब उसके लिए मैं बेकार हूँ
और फिर से बाज़ार में बिकने को मैं तैयार हूँ।
राखी

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