Sunday, August 31, 2014

मैं और तुम

मैं और तुम जब साथ थे तो थे
हमारा बिछोह तो कब का हो चूका
और मैं और तुम अब अलग हैं
पर क्या भूल  गए तुम
हमारा साथ बिताया समय
वो एक  दुसरे से जुड़ाव
वो हमारा एक दुरे के लिए स्नेह
वो साथ खाना घूमना बातें करना
वो प्यार के सुनहरे पल
बिछड़ तो गए हैं हम पर क्या
दिल से जुदा हो पाए हम तुम

लम्हे जुदाई के

ये लम्हे जुदाई के मुझसे काटे नहीं कटते
ये मिलन के बादल जल्दी से आकर क्यों नहीं बरसते
बड़े ही नामुराद पल हैं ये मेरे लिए
तुम  मुझसे अपने आप को रूबरू क्यों नहीं करते
मुझे हर वक़्त तेरा हो खयाल लगा रहता है
हरे जहन में हर वक़्त तेरा ही तेरा ही नाम रहता है
मैं जाऊं कहीं भी मगर मुझे हर पल तेरा साया मुझे घेरे रहता है
लम्हे ये जुदाई के काटे से नहीं कटते है
तुमको देखने को मेरे नैन तरसते रहते है
मेरे इस चातक दिल को बस मेघ की चाहत है
अपने इस चातक को मैंने तुमने ढूंढते देखा है
राखी

बचपन की खुशबू

बचपन के दोस्तों की खुशबू अब भी बाक़ी है
उनके साथ वो मिट्टी में खेलने का अहसास तरोताज़ा है
एक दुसरे का हाथ पकड़ गलियों में घूमना
भाग कर हम सबका वो रेत पे कूदना
वो पहली बारिश में सबका भाग भाग के घूमना
वो गली के कुत्तों का घर बना के उनके साथ खेलना
वो कागज़ की नाव और हवैजहाज़ बनाना
वो हम सब छत पे जाके पतंग को उड़ाना
वो गलिओं में जाके बैट और बॉल खेलना
कहाँ गयी वो यादें कहाँ गए वो दिन
कहाँ खो गयी वो बचपन की खुशबू
राखी

Wednesday, August 27, 2014

जीवन एक सपना है

कभी यहाँ अधूरी ख्वाइशयेन है
कभी यहाँ अधूरापन है
कभी यहाँ प्रेम की पिपासा है
तो कभी धन की आशा है
कभी यहाँ दोस्ती का भाव है
कभी दिल का दिल से जुड़ाव है
कभी किसी से प्रीत है
तो किसी से दुश्मनी की रीत है
कभी यहाँ अंधी दौड़ है
कभी बच्चों में होड़ है
कहीं गरीबी का दंश है
कही अमीरी पे रंज है
कोई प्यार में पड़ा  है
कोई वियोग में धरती पे पड़ा है
आखिर जीवन क्या है
धुप छाँव का बस एक सपना है
राखी शर्मा

जब भी मैं अकेली होती हूँ

जब भी मैं अकेली होती हूँ
तो तुम्हारी याद से खुद को घेर लेती हूँ
साँसों मेंएक तूफ़ान सा उठता है
मैं खुद को आंसुओं से भिगो लेती हूँ

जो पल मैंने तुम्हारे साथ गुज़ारे
उन पलों की माला पिरोती हूँ
और फिर उस माला से अपने रूप का श्रिंगार करने लग जाती हूँ

कभी कभी तेरा ख़याल इस
कदर हावी हो जाता है मुझपे
लगता है जैसे तू सामने हो मेरे
और तुझे बस देखे चली जाती हूँ

मेरा ये अकेलापन ही तो है
जो तुझसे मिलने का एक ज़रिया है
वरना इस तेज चलती जिंदगी में
किसको किसकी परवाह है

वो लम्हे मुझे अपनी जान से भी प्यारे है
क्युकी उनमे तेरी यादों की महक है
उनमे तेरे पास होने का अहसास है
और तू ही तो है आज भी दिल के पास है।
राखी शर्मा

Monday, August 25, 2014

किन्नर

न मैं नर हु न मैं नारी हूँ
मैं तो बस किन्नर हु
कितनी बेबस सी जिन्दगी मेरी
और कितना बेबस मैं खुद हु
हाँ मैं किन्नर हूँ
नाचता हु लोगो की खुशियों पर
ढोलक की थाप पे
देता हु दुआएं मैं सबको अपने दिल की
गहरयिओन से
मैं अपने घर बसाने में असमर्थ हूँ
हां मैं किन्नर हूँ
शादी और परिवार से महरूम हूँ
लोगों के मजाक का पात्र हु
लोगों की नजरों में अपने लिए प्यार ढूँढता हूँ
हाँ मैं किन्नर हूँ
राखी शर्मा

Saturday, August 23, 2014

हां मैंने लिख दिया है

हां मैंने लिख दिया है तुम्हारा नाम
उस पेड पर जिसके तले हम बैठा करते थे
उस चबूतरे पर जहाँ से तुम मुझे निहारा करते थे
उस बस स्टॉप पर जहाँ हम दोनों वक़्त  गुजर करते थे
अपनी उस किताब पे जिसे तुमने बड़े प्यार से मुझे सौंपा था
उस कलम पर भी जिससे सबसे पहला तुम्हारा नाम लिखा था
मैंने तो अपने कमरे की खिड़की पर भी तुम्हारा नाम लिख दिया था
आज जब भी उससे देखती हु तो बरबस ही आँखे छलक जाती हैं
क्युकी ये सारे नाम अब भी यूँही लिखे हुए हैं
हाँ मैंने लिख दिया था तुम्हारा नाम अपने दिल पर भी
और आज भी उसे कोई मिटा नहीं पाया खुद तुम भी नहीं
राखी शर्मा

Friday, August 22, 2014

दिल ने जिसे अपना कहा

काश के खुद अपनी रहमतें मुझ बरसा देता
काश वो तुझे मेरी इस झोली में डाल देता
पर ये हो न सका और तू मेरे लिए गैर बन गया
पर गलती मेरी नहीं आखिर तू ही तो था
दिल ने जिसे पहली नजर देखकर  अपना कहा
खुदा गवाह है कि सोई नहीं मैं उस रात
जिस दिन तुझसे मिली थी
प्यार की कलियाँ तुझे देखके जब फूल बनी थी
कहाँ गया वो मंजर कहाँ गए वो दिन
जब उस खुद ने ये प्रेम कहाँ लिखी थी
रश्क नहीं मुझको तुझसे जुदाई का
बस इतना ही सोचती हूँ की तू ही था वो दिल ने जिसे अपना कहा
जिन्दगी बीत तो रही है मेरी पर
जी नहीं रही मई तेरे बगैर
हर बार सोचती हु बस अब येही
की क्यों तुझे अपना कहा
राखी

Thursday, August 21, 2014

ये मन क्यों उदास होता है

जब भी ये मन उदास होता है
तेरा मेरे पास होने का अहसास होता है
कुछ यादें मानस पटल से कभी धूमिल नहीं होती
और मन को ये आभास बार बार होता है
काश के कोई जाके तुम्हे भी ये बता दे
की तुम्हारा हर पल मुझे इंतज़ार होता है
मैं तो हर पल निहारती हु मन की आँखों से तुम्हे
पर पता नहीं कि तुम्हारा भी मन भी क्या ऐसे खुशग्वार होता है
मदहोश सी रहती हूँ हर पल तुम्हारी यादों की खुशबू से
दिल में हर बार उमंगों का सैलाब होता है
आँखों में कई सपने संजोए हैं मैंने और
हर मेरा हर सपना तेरा ही तलबगार होता है
तुझसे दूर होकर भी दूर नहीं हूँ मैं
पर क्या करू मेरा ये मन जाने क्यूँ फिर भी उदास रहता है
राखी शर्मा

Wednesday, August 20, 2014

गरीब की रोटी

गरीब की रोटी ही तो है जो उससे सब करवाती है
हमेशा भागता रहता है है बस दो जून रोटी के पीछे
जाने कैसे कैसे खेल खिलाती है ये  रोटी
हर बार एक नयी कैद में डलवाती है ये रोटी
हर बार इसके लिए रोता है वो और मिलने पर अहसान जताती है रोटी
कैसी कैसे खेल दिखाती है रोटी
उमंगो को पंख लगाती है ये रोटी
वो मरने तक ही ले जाती है गरीब को
गरीब की रोटी गरीब की रोटी
राखी

बचपन के दिन

वो बचपन के दिन भी क्या कमाल के थे
उन दिनों हम भी बेमिसाल से थे
गलिओं में खेला करते थे
छतों पर कूदा करते थे
अनमनी सी सूरत बना हम
स्कूल को जाया करते थे
संग दोस्तोके अपने हम धूम मचाया करते थे
खेले हमने खेल बहुत लूडो कैरुम गिल्ली डंडे
लंगड़ी टांग और कब्बडी खो खो में खूब लगाये हथकंडे
दादी और नानी जब रातों को किस्से सुनाया करती थी
वो चुपचाप हमको नींद के आगोश में ले जाया करती थी
अब बस यादें हों उस बचपन की
जहाँ कागज़ की क्षति और हवैजहाज़ उड़ाते थे
पतंग को ले छतों पर हम पेंच लड़ाया करते थे
थक कर हम फिर कहीं भी सो जाते थे
पर सुबह हम खुद को बिस्टेर पे ही पाते थे
काश की वो बचपन का मौसम फिर लौट के आ जाए
और हमको वापस उन पलों की सैर करा लाये
राखी शर्मा

मेरा जीवन एक हादसा

मेरा जनम एक हादसा ही तो है
मैं लड़की जो हूँ
बचपन से मुझे त्याग और बलिदान सिखाया जाता है
थी छोटी तब दादी का लाड प्यार भाई के लिए मुझसे ज्यादा
थोड़ी बड़ी हुई तो माँ और पिताजी ने मुझे स्कूल में डाला
जब घर नहीं पहुँचती थी तक सबकी आँखे द्वार पे रहती थी
लेट न हुआ कर आकार मेरी माँ कहती थी
बड़ी हुई तो कालेज जाने लगी
मेरे ब्याह की चिंता  माँ बाप को सताने लगी
मुझे कोई आज़ादी नहीं दी थी अपना वर चुनने की
मगर मेरी ख्वाइश थी पढ़ लिखकर कुछ बन ने की
पर मुझे झोक दिया गया समाज की
रीतियों के कुंड में
कर दिया मेरा ब्याह छोटी सी उम्र में
सोचा मैंने भी शायद येही मेरी नियति है
और शादी के बंधन में बंधना हर लड़की का जरुरी है
पर ये क्या ससुराल जाते ही सारे सपने टूट गए
सबकी बात सुनते सुनते मेरे सपने मुझसे रूठ गए
चुलाह चौका मेरी ही जिम्मेदारी बन गयी थी
और मेरी हर ख़ुशी और की ख़ुशी पर बलि चढ़ गयी थी
बच्चे हुए तो सोचा दोबारा जीवन जी लुंगी मैं
पर उनकी देख रेख करते करते खुद को भूली मैं
अब बुढ़ापे में मेरी और भी मट्टी पालित हो रही है
मेरी बहुएं हर पल मेरी मरने की बात जोह रही हैं
कभी इस बेटे तो कभी उस बेटे के घर घुम रही हूँ
अपनी जिन्दगी से आजकल इस कदर मैं झूझ रही हु
बस बैठकर येही सोचती हूँ  मैं
मेरा जीवन और कुछ नहीं एक हादसा ही तो है।
राखी शर्मा