Sunday, April 26, 2015

बता दो न प्रिये


आजकल तुम इतना विरह क्यों लिखती हो प्रिये
तुम मुझको बतला दो आज क्यों होती हो गंभीर प्रिये
चंचल चितवन मेरी प्रिये जाने कहाँ अब खो गयी है
वो तो सबसे कटने लगी और एकाकी हो गयी गई है
रहती थी जो खिली खिली अब मुरझा सी गयी है वो
आखिर ऐसा क्या है जो मुझसे अनजानी सी हुई है वो
कल कल नदियों सी उसकी हंसी अब कहीं खो गयी है
हर पल मुझको अपनी लगती पर अब बेगानी हो गयी है
बता दो न ये राज़ और  खोलो अपने मन के द्वार प्रिये
तुम एक बार मुझको अपना मान कुछ तो बोलो प्राणप्रिये
कुम्हला सी गयी है सूरत तुम्हारी जो फूलों सी खिलती थी
मुझसे मिलने तो तुम जाने क्या जतन करने लगती थी
अब तो सामने भी आ जाऊं तो तुम मुस्काती नहीं हो
अपनी आँखों की पलके मेरी पलकों से मिलाती नही हो
क्यों आखिर तुम इतना आजकल संजीदा हो गयी हो
क्यों मेरे सामने होते हुए भी और कहीं खो गयी हो
जिस चहरे पे हमेशा लालिमा झलकी वो क्यों हुआ पीला
शबनमी गुलाबी होंटों का रंग भी अब तो हो गया नीला
क्या मैं हूँ इन सब का जिम्मेदार और गुनाहगार प्रिये
उस रब ही खातिर ही छोड़ दो मुख से शब्दबाण प्रिये ।
राखी शर्मा

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